यह पोस्ट हमने (मैं और मित्र सुशांत ने)  साल 2009 में उस वक्त लिखा था जब आमचुनाव के नतीजे आनेवाले थे। उस समय इस लेख में हमने आडवाणी की वाजपेयी से तुलना की थी। हालांकि तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है लेकिन आडवाणी का वाजपेयीकरण उनके किसी काम नहीं आया-और बीजेपी ने कथित उदार छवि और कद्दावर बुजुर्ग की तुलना में एक सख्त छवि के नेता को अपनी कमान सौंप दी है। पिछले पांच साल से आडवाणी, देश और बीजेपी के रंगमंच पर जिस दमखम के साथ खड़े थे, उसका एक तरह से पटाक्षेप कर दिया गया है। यों यह लेख मोदी और आडवाणी की तुलना की वजाय आडवाणी और वाजपेयी की तुलना करता है, लेकिन फिर भी इस मायने में मौजूं है कि आडवाणी चूक कहां गए। हम आगे कोशिश करेंगे कि आडवाणी और मोदी की एक सकारात्मक तुलना की जाए-और ये जानने की कोशिश की जाए कि मोदी कैसे पार्टी के लिए मजबूरी सी बनते गए।
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आख़िर, आडवाणी क्यों नहीं बन पा रहे हैं वाजपेयी....? 
[राजीव कुमार, सुशांत कुमार झा] 
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ज़िंदगी के दौर में या तो नंबर-1 होना चाहिए या नंबर-3....नंबर-2 वालों को जल्दी उसकी छवि से निजात नहीं मिलती या फिर अक्सर नंबर-1 उसे आगे नहीं बढ़ने देता। बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के सियासी जिंदगी का सबसे अहम पल नजदीक आ चुका है। 16 मई को मतगणना के बाद ये साफ हो जाएगा कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या फिर सियासत से सम्मानजनक रुप से ऱुख़्सत हो जाएंगे। इतना तय है कि संघ परिवार उन्हे दूसरा मौका नहीं देने जा रहा। अगर आकड़ों के खेल में बीजेपी नजदीक आ गई तो फिर आडवाणी, मुल्क के वजीर-ए-आज़म बन जाएंगे-लेकिन जो बात आडवाणी को सालती होगी वो ये कि जिस बीजेपी को उन्होने अपने ख़ून पसीने से सींचा था, जिसका एक बड़ा संगठन और जनाधार बनाया था-उसमें वाजपेयी तो आसानी से प्रधानमंत्री बन गए लेकिन आडवाणी को अपनी स्वीकार्यता बनाने में बहुत वक्त लग गया।
कहते हैं सियासत उम्मीदों का खेल है। इसमें अक्सर दो और दो, चार नहीं होते। तो फिर तमाम काबिलियत के बावजूद आडवाणी कहां चूक गए? उन्होने कौन सी ग़लती कर दी कि बाजी हर घड़ी वाजपेयी के हाथ रही? इसे समझने के लिए हमें दोनों के व्यक्तित्व की खूबियों और खामियों पर एक नज़र डालनी होगी।
आडवाणी और वाजपेयी दोनों ही संघ के राजनीतिक स्कूल के प्रशिक्षु थे। उम्र में आडवाणी से कुछेक साल बड़े वाजपेयी ने जहां अपने करियर की शुरुआत पांञ्चजन्य के संपादक के तौर पर शुरु की थी। आडवाणी उसमें फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। पाकिस्तान से आए आडवाणी का परिवार जब गुजरात में बसा और उसके बाद वे काफी वक्त तक राजस्थान में जनसंघ का काम करते रहे। बाद में वे दिल्ली मे जनसंघ का काम देखने आ गए लेकिन उनका दर्जा बड़ा नहीं था। ये वो दौर था जब जनसंघ में बलराज मधोक और नानाजी देशमुख का जलवा था, और पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी दुनिया को अलविदा कह चुके थे।
आडवाणी और वाजपेयी में कई असमानताएं हैं। जहां वाजपेयी कल्पनाशील और बड़े भाषणबाज के रूप में मशहूर हुए, वहीं आडवाणी तार्किक, विश्लेषक और भाषण में कमजोर हैं। वाजपेयी, अंग्रेजी में तंग हैं जबकि आडवाणी की अंग्रेजी पर जबर्दस्त पकड़ है। वाजपेयी खानेपीने के शौकीन हैं जबकि आडवाणी खानपान में संयमित हैं। आडवाणी को किताबों, फिल्मों और थियेटर का शौक है जबकि वाजपेयी परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वाजपेयी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं जबकि आडवाणी इसमें थोड़े तंग हैं।
आडवाणी में राजनीतिक विश्लषण और संगठन बनाने की बेजोड़ काबिलियत है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सियासत के खेल में उनसे ज्यादा चतुर सुजान निकले। वाजपेयी ने भारतीय समाज के स्वरुप का गहरा अध्ययन कर लिया था, जिसके तहत कोई कट्टरपंथी और अतिवादी विचार रखनेवाला राजनीतिज्ञ सियासत में कामयाब नहीं हो सकता था। वाजपेयी ने बड़ी चतुराई से अपनी शख़्सियत का निर्माण किया, वे संघ के चहेते भी बने रहे और बाहर उदारवाद का चोला बदस्तूर पहने रखा।
दूसरी बात जो अहम थी वो ये कि वाजपेयी में भाषण देने का बेजोड़ गुण था, चुटीले शब्दों की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनको सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी। हमारी पीढ़ी के लोगों ने जिस वाजपेयी को देखा है, वो उम्र के अपने आखिरी पड़ाव पर थका हुआ सियासतदान था-वाकई वाजपेयी की ऊर्जा और जोश 90 से पहले या उससे भी पहले देखने लायक थी। हमारे देश में अमूमन कामयाब सियासतदान, अच्छे भाषणकर्ता हुए हैं, आडवाणी इस मामले में भी कमजोर साबित हुए। आडवाणी ने ऐसा खुद भी स्वीकार किया है।
जहां तक चुनावी राजनीति की बात है तो वाजपेयी इसमें बहुत पहले ही सक्रिय हो गए थे, शायद मुल्क का दूसरा आम चुनाव भी उन्होने लड़ा था और संसद में अपनी काबिलियत का लोहा बड़े नेताओं से मनवाया था। वाजपेयी की लोकप्रियता तब उफान पर आ गई जब पंडित नेहरु ने संसद में उनकी तारीफ में कशीदे पढ़े- शायद वाजपेयी ने चीन के मसले पर नेहरु की नीतियों का बड़े ही तार्किक ढ़ंग से और कड़ा विरोध किया था। इसके बाद वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होने अपने करिश्माई भाषण के बदौलत सारे देश में अपनी धाक जमा ली। वे अचानक कम उम्र में ही नेताओं के बड़े कल्ब में शामिल हो गए। लेकिन उस वक्त आडवाणी क्या कर रहे थे ? आडवाणी उस वक्त जनसंघ की दिल्ली शाखा के लिए बड़े तल्लीनता से काम कर रहे थे। यहां ये बात साफ हो जाती है कि सियासत ही नहीं दूसरे पेशे में भी विज्ञापन, जनसंपर्क और छवि निर्माण का कितना बड़ा हाथ है।
वाजपेयी का भाषण कला में दक्ष होना उनके हिंदी पर बेहतरीन अधिकार से भी संभव हुआ। आडवाणी ने काफी मेहनत करके हिंदी सीखी। लोग कहते हैं कि वाजपेयी अगर सियासत में नहीं होते तो एक अच्छे कवि जरुर हो सकते थे- अलबत्ता कईयों ने उनके हालिया कविताओं की बड़ी खिल्ली भी उड़ाई। बहरहाल, वाजपेयी अपनी भाषण कला और कलाबाजी के बदौलत आम जनता में एक बड़े नेता के रुप में मशहूर होते गए, लेकिन आडवाणी संघ के विचारों की कट्टरता से मुक्त नहीं हो पाए या कम से कम ऐसा दिखा नहीं पाए।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि आडवाणी की शख़्सियत में भले ही संघ की विचारधारा ज्यादा साफ दिखती हो, लेकिन कई लोगों की राय में वाजपेयी, संघ नेतृत्व के ज्यादा नजदीक थे। ऐसा दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के ही जमाने से था। संघ नेतृत्व ने इसीलिए वाजपेयी के कामों में कभी ज्यादा दखलअंदाजी नहीं की जबकि आडवाणी को वो एक सीमा से ज्यादा छूट देने को तैयार नहीं है।
एक अहम बात ये भी है कि वाजपेयी ऊपर से ज्यादा उदार भले ही दिखते हों, लेकिन असलियत में वो एक एकाधिकारवादी नेता और अपने इर्द-गिर्द किसी को न पनपने देने वाले लोकतांत्रिक तानाशाह ज्यादा थे। वाजपेयी के राह में जिस किसी ने भी रोड़ा बनने की कोशिश की, उन्होने उसकी सियासी मौत का दस्तावेज लिख दिया। चाहे वो बलराज मधोक हों, या फिर नानाजी देशमुख या फिर हाल के दिनों में कल्याण सिंह, वाजपेयी ने किसी को भी नहीं छोड़ा।
आडवाणी, वाजपेयी से लाख दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद उनके इस मानसिकता से सतर्क थे-और उन्होने कभी भी अपने आपको उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश भी नहीं किया। बल्कि राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए उन्होने वाजपेयी की राह आसान बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। साल 1991 में जब आडवाणी को हवाला कांड के बाद अपने पद से इस्तीफा देना प़ड़ा तो उन्होने बिना किसी हिचक के ये पद वाजपेयी को सौंप दिया। उसके बाद की कहानी तो सिर्फ़ इतिहास है।
कुछ लोग कहते हैं कि वाजपेयी इसलिए भी सबको स्वीकार्य हो गए कि समाजिक रुप से ब्राह्मण होने का उन्हे फ़ायदा मिला। हलांकि वाजपेयी (और शायद पंडित नेहरु भी) उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होने बड़े करीने से अपनी छवि को इन चीजों से मुक्त कर रखा था। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में इन बातों का ज्यादा महत्व भी नहीं है, लेकिन बारीक स्तर पर कई दफा कई चीजें बिना शोर शराबे के काम करती है। वाजपेयी ब्राह्मण परिवार से हैं जबकि आडवाणी सिंधी। मंडल के उस घनघोर युग में जब पूरे देश के खासकर उत्तर भारत के ब्राह्मण और सवर्ण अपने आपको हाशिए पर पा रहे थे, वाजपेयी के उदय ने एक बड़े वर्ग को बीजेपी की तरफ मोड़ दिया था, इसमें कोई शक नहीं।
इसके आलावा हिंदुस्तान की सवर्ण मीडिया ने भी वाजपेयी के प्रति जर्बदस्त दीवानगी दिखाई। वाजपेयी जितने उदारवादी थे नहीं, उससे ज्यादा उदारवादी उन्हे बताया जाता रहा। वाजपेयी ने कभी भी संघ से अपनी मोहब्बत को नहीं छुपाया, उन्होने अपने आप को आजीवन स्वयंसेवक बताया-संघ के अंदुरुनी हल्कों में ऊंचाई पाने के लिए उन्होने शादी तक नहीं की- वो वाजपेयी कैसे उदार हो गए? जिस वाजपेयी ने बाबरी ध्वंस के वक्त जमीन सपाट कर देने की बात की थी वो वाजपेयी उदार कैसे हो गए ? क्या कोई इस बात को भूल सकता है कि ये वाजपेयी की हुकूमत ही थी जिस वक्त गुजरात में दंगे हुए थे। वाजपेयी ने सिर्फ जुबानी जमाखर्च के आलावा क्या किया था?
साफ़ है वाजपेयी ने बड़े करीने से अपने इमेज और आभा मंडल बनाई, हिंदुस्तान की जनता जिसकी दीवानी होती गई। जनता में यहीं लोकप्रियता वाजपेयी को अपने गठबंधन के दलों में भी स्वीकार्य बना गई। आडवाणी यहीं चूक गए। आडवाणी ने अपनी सारी जिंदगी बीजेपी के ढ़ांचे को बनाने में खपा दिया, लेकिन वो अपनी इमेज का ढांचा नहीं बना पाए। इसमें कोई शक नहीं कि 90 के दशक में बीजेपी का आधार वोट आडवाणी के ही अयोध्या आंदोलन की उपज था जिसे वाजपेयी ने बाद में अपने इमेज के बल पर गठबंधन की शक्ल में ढ़ाल लिया। जबकि उस गठबंधन को बनाने में भी आडवाणी का योगदान था।
आडवाणी अभी तक सोमनाथ रथ यात्रा और बाबरी ध्वंस की छवि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं। इसकी कोशिश उन्होने बड़ी देर से शुरु की जब उन्होने जिन्ना की शान में कसीदे पढ़े। कुल मिलाकर आडवाणी ने बहुत देर से अपने को वाजपेयी के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की है- जो काम वाजपेयी ने 50 साल पहले शुरु कर दिया था। 2009 का हिंदुस्तान काफी बदल चुका है-लेकिन वाजपेयी व्यक्तित्व के मामले में आमलोगों के दिलों -दिमाग इतनी बड़ी लकीर खींच गए हैं कि आडवाणी अब भी उनके सामने बौने लगते हैं। अब सवाल ये है कि क्या 16 मई को आनेवाले नतीजों में जनता उन्हे वाजपेयी-2 का दर्ज़ा देगी? चलिए देखते हैं...।




 
 
 बराक ओबामा जा चुके हैं। जाते-जाते वो हमारी कानों को वो बातें सुना गए जिसे सुनने के लिए हम कब से व्याकुल थे। लेकिन शोर-शराबा खत्म होने के बाद अब वक्त आ गया है जब हम गिफ्ट बॉक्स को खोलें और देखें कि दिया गया आश्वासन हमारे कितने काम का है। सबसे पहले बात सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई सदस्यता की, ओबामा और उनके सलाहकार जानते है कि भारत के लिए स्थाई सीट का रास्ता काफी लंबा और मुश्किल भरा है। सिर्फ अमरीका के समर्थन से कुछ नहीं होगा। मान लीजिए चीन तैयार भी हो जाता है लेकिन जापान, जर्मनी, दक्षिण अफ्रिका और ब्राजील का क्या होगा जिनका दावा भारत से कम मजबूत तो नहीं ही है। ये देश भारत को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं बशर्ते इन्हें भी स्थाई सीट दे दी जाए।
बराक ओबामा जा चुके हैं। जाते-जाते वो हमारी कानों को वो बातें सुना गए जिसे सुनने के लिए हम कब से व्याकुल थे। लेकिन शोर-शराबा खत्म होने के बाद अब वक्त आ गया है जब हम गिफ्ट बॉक्स को खोलें और देखें कि दिया गया आश्वासन हमारे कितने काम का है। सबसे पहले बात सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई सदस्यता की, ओबामा और उनके सलाहकार जानते है कि भारत के लिए स्थाई सीट का रास्ता काफी लंबा और मुश्किल भरा है। सिर्फ अमरीका के समर्थन से कुछ नहीं होगा। मान लीजिए चीन तैयार भी हो जाता है लेकिन जापान, जर्मनी, दक्षिण अफ्रिका और ब्राजील का क्या होगा जिनका दावा भारत से कम मजबूत तो नहीं ही है। ये देश भारत को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं बशर्ते इन्हें भी स्थाई सीट दे दी जाए।

 Honesty भले ही बेस्ट पालिसी नहीं रह गई हो......लेकिन आपकी ईमानदारी एक ब्रांड तो है ही...अब बलबीर भाटिया को ही देख लीजिए...ऑटो चलाते है, लेकिन अपनी ब्रांडिंग करना नहीं भूलते। ईमानदारी को ही अपना यूएसपी बना लिया....टाटा और रिलायंस का अंतर समझते हैं। ख़ैर तश्वीर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ली गई है। दस लाख रूपए कम नहीं होते लेकिन ईमानदारी की भी भला कोई क़ीमत लगा पाया है।
Honesty भले ही बेस्ट पालिसी नहीं रह गई हो......लेकिन आपकी ईमानदारी एक ब्रांड तो है ही...अब बलबीर भाटिया को ही देख लीजिए...ऑटो चलाते है, लेकिन अपनी ब्रांडिंग करना नहीं भूलते। ईमानदारी को ही अपना यूएसपी बना लिया....टाटा और रिलायंस का अंतर समझते हैं। ख़ैर तश्वीर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ली गई है। दस लाख रूपए कम नहीं होते लेकिन ईमानदारी की भी भला कोई क़ीमत लगा पाया है। 







 आज सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 साल पूरा कर रहे हैं। इन 20 वर्षों में सचिन ने सफ़लता के कई मुकाम खड़े किये। कितनी ही रिकार्डें ध्वस्त की...कई नए कीर्तिमान बनाए...इस खेल की नई परिभाषाएं गढ़ीं। क्रिकेट प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन भी किया। लेकिन क्या सचिन इतिहास के सबसे महान क्रिकेटर हैं?? सच है, सचिन ने वन डे और टेस्ट में जो रनों का पहाड़ खड़ा किया है, वो अपने आप में मिसाल है, और आने वाले सालों साल तक कोई खिलाड़ी उनके रिकार्ड के आसपास भी पहुंचता नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन व्यक्तिगत रन और महानतम होना, दो अलग-अलग बातें हैं। मेरे जेनरेशन के लोगों ने सुनिल गावस्कर को कम ही खेलते देखा है। लेकिन मुझे वो सचिन से महान और बेहतरीन बल्लेबाज लगते हैं। ये विचार बिल्कुल ही व्यक्तिगत हैं।
आज सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 साल पूरा कर रहे हैं। इन 20 वर्षों में सचिन ने सफ़लता के कई मुकाम खड़े किये। कितनी ही रिकार्डें ध्वस्त की...कई नए कीर्तिमान बनाए...इस खेल की नई परिभाषाएं गढ़ीं। क्रिकेट प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन भी किया। लेकिन क्या सचिन इतिहास के सबसे महान क्रिकेटर हैं?? सच है, सचिन ने वन डे और टेस्ट में जो रनों का पहाड़ खड़ा किया है, वो अपने आप में मिसाल है, और आने वाले सालों साल तक कोई खिलाड़ी उनके रिकार्ड के आसपास भी पहुंचता नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन व्यक्तिगत रन और महानतम होना, दो अलग-अलग बातें हैं। मेरे जेनरेशन के लोगों ने सुनिल गावस्कर को कम ही खेलते देखा है। लेकिन मुझे वो सचिन से महान और बेहतरीन बल्लेबाज लगते हैं। ये विचार बिल्कुल ही व्यक्तिगत हैं।
 गावस्कर ने ऐसे तेज़ गेंदबाजों का सामना किया जो क्रिकेट इतिहास में पहले कभी नहीं देखा था, न ही आगे देखा। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि पहली बार कोई देशी जीतने की मांईडसेट से खेलने उतरा था। गावस्कर से पहले हम खेलने के लिए खेलत थे, जीतने के लिए नहीं। मैदान के चारों और लगने वाले गावस्कर के चौकों, छक्कों से कड़कड़ाहट से हमारी तंद्रा टूटी। खेल की भावना तो हमारे अंदर थी, लेकिन जीतने का ख़्वाब पहली बार हमने गावस्कर की आंखों से ही देखा था। गावस्कर पहले भारतीय क्रिकेटर थे, जिन्होंने विरोधी टीम की आंखों में घूरा। जिसकी शाट्स की चमक गेंदबाजों को विस्मृत कर देती...चौधिया देती। आप इसे मनोवैज्ञानिक इंजीयरिंग कह सकते हैं। आज हरभजन या सचिन अगर विरोधियों की आंखों में विजय भाव से घूर सकते हैं, तो इसका श्रेय गावस्कर को ही जाता है। ऐसा भी नहीं है कि उस वक्त हमारी टीम में गावस्कर से बेहतर खिलाड़ी नहीं थे...लेकिन हौसले का आभाव तो था ही। सैकड़ों वर्षों की गुलामी मानसिकता मैदान पर भी दिख जाती। गावस्कर ने इसी जिंक्स को तोड़ा था। पहला खिलाड़ी जिसने आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलिया के ख़िलाफ वॉक आउट करने की हौसला दिखलाया। भारतीय क्रिकेट का प्रथम पुरूष जो अपनी कमजोरियों को समझता था, फिर भी जीतने के लिए ही मैदान में उतरता था। वो विजय भाव से खेलता, हार उसे यकीनन मंजूर नहीं था। जीतने का चस्का हमें गावस्कर ने ही लगाया था।
गावस्कर ने ऐसे तेज़ गेंदबाजों का सामना किया जो क्रिकेट इतिहास में पहले कभी नहीं देखा था, न ही आगे देखा। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि पहली बार कोई देशी जीतने की मांईडसेट से खेलने उतरा था। गावस्कर से पहले हम खेलने के लिए खेलत थे, जीतने के लिए नहीं। मैदान के चारों और लगने वाले गावस्कर के चौकों, छक्कों से कड़कड़ाहट से हमारी तंद्रा टूटी। खेल की भावना तो हमारे अंदर थी, लेकिन जीतने का ख़्वाब पहली बार हमने गावस्कर की आंखों से ही देखा था। गावस्कर पहले भारतीय क्रिकेटर थे, जिन्होंने विरोधी टीम की आंखों में घूरा। जिसकी शाट्स की चमक गेंदबाजों को विस्मृत कर देती...चौधिया देती। आप इसे मनोवैज्ञानिक इंजीयरिंग कह सकते हैं। आज हरभजन या सचिन अगर विरोधियों की आंखों में विजय भाव से घूर सकते हैं, तो इसका श्रेय गावस्कर को ही जाता है। ऐसा भी नहीं है कि उस वक्त हमारी टीम में गावस्कर से बेहतर खिलाड़ी नहीं थे...लेकिन हौसले का आभाव तो था ही। सैकड़ों वर्षों की गुलामी मानसिकता मैदान पर भी दिख जाती। गावस्कर ने इसी जिंक्स को तोड़ा था। पहला खिलाड़ी जिसने आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलिया के ख़िलाफ वॉक आउट करने की हौसला दिखलाया। भारतीय क्रिकेट का प्रथम पुरूष जो अपनी कमजोरियों को समझता था, फिर भी जीतने के लिए ही मैदान में उतरता था। वो विजय भाव से खेलता, हार उसे यकीनन मंजूर नहीं था। जीतने का चस्का हमें गावस्कर ने ही लगाया था।
 
 
 
 
 
 
 
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